Tuesday, April 6, 2010


बचपन की कुछ बातें
बचपन का समय एक ऐसा समय होता है जिसमें माता- पिता अपनी नन्हीं सी जान को हाथ में लेकर एक टक्क देखते हैं और उनके चेहरे से मुस्कराहट हटती ही नहीं है."अरे देखो कैसे चल रही है","मेरी बेटी इ.एस ऑफिसर बनेगी""मेरे घर आई एक नन्हीं परी" "देखो कैसे शेर की तरह दहाड़ रहा है "।इस समय माता-पिता के लिए इनके बच्चों से बढ़कर और कुच्छ भी नहीं होता है.वे अपने बच्चों के लिए नए खिलौने और नए कपडे लाते हैं.बचपन की कुच्छ ऐसी यादें दिल में रह जाती हैं जो कभी भी नहीं भूल सकते हैं हमसब.वो यादें दिल में अंकित हो जाती हैं.और अपने आप हिम मुहं से निकल पड़ता है"काश वो दिन वापस फिर आजायें!"
कुछ ऐसी ही कहानियां मेरी भी हैं जो मैं आप सब को बताना चाहूंगी और आप सबको अपना सहभागी बनाना चाहूंगी.मेरे पास खुराफाती दिमाग की कमी न थी।
एक बार मैं अपनी माँ के साथ बैठी थी और न जाने कहाँ दिमाग में आया और मैंने माँ से कहा की वे मुझे मेरे बचपन के बारे में बताएं.मेरी माँ के चेहरे पर एक मुस्कान आगई.उन्होंने मुझे बताया की जब मैं ५ वर्ष की थी मैंने कैसे एक घी से भरी बोत्त्ल फोड़ दी थी.घी की बोत्त्ल एक छोटी सी आलमारी के ऊपर राखी हुई थी.घी देख कर मेरा जी ललचा गया और मैंने वहाँ स्टूल रख कर उसे उतरना चाहा .ना जाने कैसे वो बोत्त्ल वहाँ से गिर पड़ी और पूरा घी नीचे गिर पड़ा.मेरी माँ दौड़ते हुए आयीं.मैं देख कर घबरा गयी और दरवाज़े के पीछे जा छुपी.माँ तो बच्चे को ह्रदय को जानती ही हैं.मेरी माँ दरवाज़े के पीछे आई और देखा की मैं नीचे मुहं छुपाये हुए बैठी थी.जैसे ही माँ को देखा मैंने तोतली भाषा में कहा "अम्मा अमे नै पता ये कैचे गिला ,तुम्हाली कचम.भूकंप आया ओगा,मुझे चच में नै पता ये कैचे गिला!" माँ की ममता न रुक सकी और मेरी तोतली भाषा सुन कर माँ ने आलिंगन में भर लिया.अपनी गलती छुपाने के लिए मैंने अपने छोटे छोटे हाथों से माँ का पैर दबाया .मेरी माँ मन ही मन देख मुस्कुरा रही थी।
ये तब की बात हैं जब मैं ८-९ वर्ष की थी।
हम सब गावँ में इक्कट्ठे हुए थे.उस समय हमारे घर में बच्चों की फ़ौज जमा थी.उस समय तकरीबन २०-२१ बच्चे थे.छोटे बच्चे हों और शैतान न हो,ये आपने शायद ही कहीं सुना होगा.हम सभी छोटे थे ,हमने कच्छी और बनियान पहनी हुई थी। कभी कभी पानी का इतना प्रभाव होता था की हमारी कच्छी हो नीचे उतर जाती थी.और हम सब उसकी बहुत खिल्ली उड़ाते थे.और वो शर्मा कर कच्छी ऊपर खींचते हुए वहाँ से भाग निकलता.उस दिन हमने बहुत मस्ती करी!उस दिन को मैं कभी भी नहीं भूल सकुंगी।
यह तब की बात है जब मैं ८-९ वर्ष की थी। मेरी माँ श्रीन्गार्दान खुला छोड़ कर सोने चली गयी थी.मैं जगी हुई थी.उस दिन मैंने अपना पहली बार श्रृंगार करने की कोशिश करी। पूरा पिटारा खोल कर मैंने उसका इस्तमाल करना शुरू करा। मैंने पावडर निकल पर पूरे मुहं पर पोत लिया.काजल निकाल कर आँखों के बहार लगाना शुरू करा। लाली निकाली और तीन चार रंग इकट्ठे ही अपने होठों पर लगा लिए । और एक छोटी से चोटी करी.माँ के एक सुन्दर सा दुपट्टा निकाल कर सारे बना कर ओढ़ लिया। फिर सोचा के एक बार जाकर मैं खुद को शीशे में देख लूं.एक मिनट के लिए मैं अपने आप को देख कर डर गयी और मन ही मन सोचा की मैं एक चुड़ैल से कम नहीं लग रही थी.और अपना दुपट्टा संभालते संभालते मैं माँ के बगल में जा कर लेट गयी.उसके बाद क्या हुआ वो तो मुहे भी नहीं याद है!
बचपन ही एक ऐसा समय होता है जिसमें वो अपनी शरारतों के द्वारा अपना चंचल व्यहवहार दिखाते हैं.इसलिए माता-पिता को कभी भी बच्चों को इस उम्र में शरारतों के लिए टोकना नहीं चाहिए। शरारत अभी नहीं करेंगे तो कब करेंगे?

3 comments:

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  2. Hi ananya,
    I think you become greater writer.
    West wises for u.
    Rohit kumar

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  3. वाकई बचपन शरारतों के लिए ही तो होता है। सही बात तो यह है कि यदि बचपन में कोई शरारत ना की हो तो, बचपन की याद बहुत थोड़ी ही रह जाती है। हमें याद है कि हमारे अभिभावक कैसे चटकारे ले-लेकर अपने बचपन की शरारतें सुनाते हैं। वैसे यह शरारत भी अब कितनी सिमटती जा रही है? हम महसूस करते हैं कि जो शरारतें हमारें माता-पिता ने की वह हम नहीं कर पाए हैं, जो हमारे दादाजी ने की वह पापाजी नहीं कर पाए और जो हम कर लिए हैं, हम देख रहे हैं कि हमारे घर के छोटे बच्‍चे नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन, शरारतों के बगैर भी कोई जिंदगी है। ये शरारतें ही तो कल को हमारे बचपन की याद दिलाती है। यदि बचपन की कोई याद शेष रहती है तो उसमें सबसे अधिक जिक्र हमारी शरारतों का ही होता है।
    आपने क्‍या गजब अभिव्‍यक्ति की है। शब्‍दों का तो कोई खास बोझ नहीं डाला लेकिन शब्‍दों की जीवंतता बन पड़ी है। आज आपकी इस रचना के बहाने हम भी अपने बचपन में चले गए थोड़ी देर के लिए- धन्‍यवाद।

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